तुम कहाँ थे जब मुझे तुम्हारी जरुरत थी, तुम्हारे भरोसे की उम्मीद थी। तुम चाहते तो मेरे लिए बहुत कुछ कर सकते थे, मुझे नहीं तो कम से कम मेरे बच्चो को पढ़ा सकते थे।
मैं तो अनपढ़ था, समझता था कि जितने हाथ होंगे पैसे भी उतने आएँगे, पर खर्च भी तो बढ़ जाती है ना, परिवार नियोजन के बारे में मुझे समझा सकते थे।
तुम चाहते तो मुझे छोटे मोटे काम सीखा सकते थे, मैं खेत की मिट्टी में फसल कैसे लगाऊं ये बता सकते थे। सरकार क्या क्या योजनाएं लाती है वो बता सकते थे। मगर तुम सबने ऐसा नहीं किया, सिवाय मेरे मौत के बाद बरसाती मेढक की तरह टर्राने की।
हाँ मैं किसान हूँ, अनपढ़ हूँ, गंवार हूँ, क़र्ज़ से बोझ से दबा एक लाचार हूँ, हाँ मैं किसान हूँ।
ऐसा नहीं है कि मैं पहली बार मर रहा हूँ, मुगलों के शासन काल से लेकर आज के लोकतांत्रिक साम्राज्य में भी मर रहा हूँ।
हम तो है अनपढ़, किसी ने कहा तुम मुझे वोट दो तो तुम्हारी गरीबी मिटा दूंगा, अच्छा लगा था सुनकर और वोट दिया। किसी ने कहा कि समाज में बराबरी नहीं है, अमीरी और गरीबी के फर्क को हटाने के लिए हथियार उठाओ, हमने वो भी किया।
सत्ता पक्ष में रहते हुए, मेरे गरीबी का एक न्यूतम मूल्य निर्धारित किया, और अब सत्ताहीन होने पे मैं तुम्हे गरीब नजर आने लगा। पर मेरे लिए दोनों समय वही रहा, क्योंकि मेरी मूल समस्या वही की वही रही।
मगर नहीं, तुम ये सब मुझे क्यों समझाओगे, क्योंकि अगर मैं समझ गया तो तुम्हारी दुकाने बंद हो जाएगी।
बस अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते हुए मेरे मौत का आनंद लो।